वास्तु एवं ज्योतिष >> अंक विद्या अंक विद्यागोपेश कुमार ओझा
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अंक विद्या
Ank Vidya a hindi book by Gopesh Kumar Ojha - अंक विद्या -
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पहला प्रकरण
अंक-विद्या रहस्य
संसार में जो हम भिन्न-भिन्न वस्तुएँ देखते हैं, उनके अनेक रूप हैं। विविध रंगों से मिलने नये रंग बन जाते हैं। लाल और पीला मिलाने से नारंगी रंग बन जाता है। पीला और नीला मिलाने से हरा। इस प्रकार सैकड़ों, हजारों रंग बन सकते हैं, परन्तु इनके मूल में वही सातो रंग हैं जो इन्द्रधनुष में दिखाई देते हैं। इन सात रंगों के मूल में भी एक ही रंग रह जाता है जो सफेद है, किंवा रंगरहित शुद्ध प्रकाश है। सूर्य की प्रकाश रेखा को ‘प्रिज़्म’ में पार करने से सात रंग स्पष्ट दिखाई देते हैं। वैसे, सूर्य की किरण शुद्ध उज्ज्वल बिना रंग की प्रतीत होती है।
इसी प्रकार संसार की जो विभन्न वस्तुएँ हमें दिखाई देती हैं, उनमें पृथ्वी जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्व है। उनमें तत्त्वों का सम्मिश्रण भिन्न-भिन्न प्रकार से है। किसी में कोई तत्त्व कम है, किसी में कोई अधिक परन्तु यह समस्त जगत् केवल पांच तत्त्वों का प्रपंच है। यह पांच तत्त्व भी केवल आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी। पृथ्वी का गुण ‘गन्ध’, जल का ‘रस’, अग्नि का ‘तेज’ (रूप), वायु का ‘स्पर्श’ और आकाश का गुण ‘शब्द’ है। जैसे संसार के सभी पदार्थों के मूल में आकाश तत्त्व है, उसी प्रकार हम यह कह सकते हैं कि संसार के सभी पदार्थों का गुण ‘शब्द’ है। इसी कारण शब्द को ‘शब्द-ब्रह्म’—अर्थात् परम प्रभु परमेश्वर का प्रतीक माना गया है।
परिणामगतः तो सब शब्द ब्रह्म के रूप ही हैं किन्तु भिन्न-भिन्न शब्दों का गुण और प्रभा भी भिन्न-भिन्न हैं और प्रत्येक शब्दों को अंक या संख्या में परिवर्तित कर उसकी माप की जा सकती है। कोई शब्द (या शब्दावली) 7000 बार आवृत्ति करने पर पूर्णता को प्राप्त होता है किसी का 17000 बार आवृत्ति करने पर परिपाक होता है। ‘संख्या’ और ‘शब्द’ के सम्बन्ध से हमारे ऋषि-महर्षि पूर्व परिचित थे, किसी कारण सूर्य के मंत्र का जप 7000 चन्द्रमा का 11000, तथा मंगल का 10000, बुद्ध का 9000, ब्रहस्पति का 19000, शुक्र का 16000, शनि का 23000, राहु का 18000 और केतु का 17000 जप निर्धारित किया है। किसी देवता के मंत्र में 22 अक्षर1 होते हैं तो किसी के मंत्र में 36। ‘शब्द’ संख्या का घनिष्ट वैज्ञानिक सम्बन्ध है।
इसी प्रकार संख्या और क्रिया का घनिष्ठ संम्बन्ध है। शून्य संख्या (0), निष्क्रिय निराकार, निर्विकार ब्रह्म’ का द्योतक है और ‘1’ पूर्ण ब्रह्म की उस स्थिति का द्योतक है, जब वह अद्वैत रूप से रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘शब्द’ और संख्या (अंक) में सम्बन्ध होने के कारण-समस्त पदार्थों के मूल में जैसे ‘शब्द’ है—
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1. देखिए ‘मंत्र महोदधि’ तृतीय तथा एकादशतरंग; पुरश्यचर्यार्णव तृतीय भाग
वैसे ही अंक भी। शब्द के मूल—आकाश को—‘शून्य’ कहते हैं और अंक के मूल को भी ‘शून्य’ कहते हैं। ‘शून्य’ से ही शब्द और अंक का प्रदुर्भाव होता है। यदि ‘अंक (संख्या) का किसी वस्तु या क्रिया से सम्बन्ध नहीं होता तो हमारे शास्त्र 108 मणियों की माला बनाने का विधान नहीं करते प्रत्येक संख्या का एक महत्त्व है। 25 मणियों की माला पर जप करने से मोक्ष, 30 की माला से धन सिद्धि, 27 की माला से स्वार्थ सिद्धि, 54 से सर्वकामावाप्ति और 108 से सर्व प्रकार की सिद्धियाँ हो सकती हैं। किंतु अभिचार कर्म में 15 मणियों का माला प्रशस्त है।1
108 संख्या का क्या रहस्य है ? सूर्य के राशिभ्रमण में जब एक पूरा चक्र लग जाता है, तो एक वृत्त पूरा करता है। एक वत्त् में 360 अंश होते हैं। इस प्रकार सूर्य की एक प्रदक्षिणा में अंशों की यदि कला बनाई जावे तो 360x60=21600 कला हुईं। सूर्य छः मास उत्तर अयन में रहता है और छः मास दक्षिण अयन में। इस हिसाब से 21600 को दो भागों में विभक्त करने से 10800 संख्या प्राप्त हुई।
अब दूसरे प्रकार से विचार कीजिए। प्रत्येक दिन में सूर्योदय से लेकर दूसरे सूर्यास्त तक ‘काल’ का परिमाण 60 घड़ी माना है। एक घड़ी के 60 पल और 1 पल के 60 विपल। इस प्रकार एक अहोरात्र में 60x60x60=216000 विपल हुए। इसके आधे दिन में 108000 और इतने ही रात्रि में।
जैसे आजकल के नवीन वैज्ञानिक प्रणाली के अनुसार रुपये,
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1. देखिये शारदातिलक का 23वाँ पटल-राघवभट्ट कृत पदार्थवंश व्याख्या।
पैसे, तोल, माप, थर्मामीटर आदि एक ही दशमलव के आधार पर बनाए जा रहे हैं हमारे प्राचीन ऋषियों ने ‘काल’ और ‘संख्या’ का समन्वय किया था। इसी के समीकरण और सामञ्जस्य स्वरूप 108000 की संख्या उपलब्ध हुई और दशमलव की प्रणाली के अनुसार बिन्दु छोड़ देने से 108 की संख्या प्राप्त हुई। हमारे प्राचीन ऋषियों ने ‘शब्द’, काल, संख्या आदि सभी का इस प्रकार सामञ्जस्य कर दिया था कि प्रत्येक नाम का—नाम के अक्षरों का संख्या पिंड, बनाने से उसके सब गुण उस संख्या से प्रकट हो जाते थे। इसी आधार पर जय-पराजय चक्र आगे 9वें प्रकरण में दिये गये हैं। ऋणि और धनी—कौन किसका कर्जदार है अंक-विद्या, मंत्र-विद्या, आदि से सम्बन्ध रखता है, क्योंकि देना-पावना में संख्या में ही होता है।1
नाम को ‘संख्या में परिवर्तित करना—एक बहुत गंभीर विद्या है। आजकल के वैज्ञानिक प्रत्येक भोज्य पदार्थ को ‘‘कैलोरी’’ में परिवर्तित कर यह बताते हैं कि किस भोजन में कितना शक्तिर्धक साधन है। इसी प्रकार किसी नाम को संख्या में परिवर्तित करके यह बताया जा सकता है कि कौन से नाम का व्यक्ति, किससे अधिक शक्तिशाली होगा। प्रत्येक नाम का व्यक्ति उस व्यक्ति का प्रतीक है। विद्वानों के मत से मनुष्य जब सोया हुआ रहता है—तब भी उसके चैतन्य की एक कला जगी हुई रहती है। और उसे सावधान या सतर्क किए रहती है। यदि 20 मनुष्य एक ही स्थान पर सोये हुए हों तो प्रायः जिसका नाम लेकर आवाज दी
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1. देखिए ‘‘तंत्रसार’’ तथा ‘चंडी’’ अंक 4-वर्ष 12-पृष्ठ 114
जाती है वही जग जाता है। ‘नरपति जय-चर्चा1 नामक ग्रंथ में लिखा है कि मनुष्य के उसी नाम का विचार करना चाहिए जिस से उसे आवाज़ दी जावे तो वह सोता हुआ जग जावे। ‘नाम’ और नाम की प्रतीक ‘संख्या’ अनादिकाल से, फलादेश में उपयुक्त होते रहे हैं। जिस पाकर रेडियो की सूई जिस ‘संख्या’ पर स्थिर कर दीजिए उसी ‘संख्या’ पर प्रवाहित शब्द रोडियो पर सुनाई देने लगते हैं—उसी प्रकार ‘संख्या’ विशेष और उस ‘संख्या’ के प्रतीक ‘वस्तु’ या व्यक्ति में आकर्षण होता है।
अमेरिका में नवीन अनुसंधान द्वारा यह सिद्ध कर दिया जा चुका है कि बहुत-से प्रकार के कीड़े, अपने सजातीय कीड़ों को सन्देश या संवाद भेज सकते हैं—इसका कारण यह है कि जिस प्रकार एक संख्या पर सूई स्थिर करने से रेडियों में आवाज़ आने लगती है उसी प्रकार यह कीड़े भी जो संवाद प्रेषित करते हैं उनको उनके सजातीय कीड़े ग्रहण कर सकते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के कीड़ों को एक बड़े बाग़ के अलग-अलग कोनों पर छोड़ा गया है—वह एक ही केन्द्र स्थल पर जाकर मिल जाते हैं। एक खास प्रकार की मक्खी के झुँड को दो स्थानों पर-परस्पर एक दूसरे से एक मील दूर-छोड़कर देखा गया कि वे एक ही स्थान पर आकर मिल जाती हैं।2
या जुगनू को लीजिए। मादा जुगनू के पर नहीं होते, नर के होते हैं। दोनों के शरीर से प्रकाश निकलता है किन्तु मादा जुगनू के शरीर से अधिक तेजी से रोशनी निकलती है और इस चमक से
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1. नरपति चर्चा अध्याय 2 पृ. 15
जन्म-पत्रिका विधान पृ. 225
2. ‘‘Number Please’’ by Dr. United Cross पृ. 14, 15
आकृष्ट होकर नर जुगनू उसके पास आता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में परस्पर क्यों आकर्षण या घृणा प्रादुर्भाव होता है-यह स्थूल दृष्टि से नहीं जाना जा सकता। किन्तु सब के मूल में वैज्ञानिक रहस्य है
जंगल में दाना डाल दीजिए। चिड़िया और कबूतर आ जावेंगे। चीनी फैला दीजिए; चीटियाँ इकट्ठी हो जावेंगी। मरा हुआ जानवर डाल दीजिए, गृद्ध और चील आकाश को आच्छादित कर लेंगी। और कहीं रात्रि में बकरा, या पाड़ा बाँध दीजिए तो शेर शिकार के लिए आजावेगा, चीनी पर शेर नहीं आता। बँधे हुए बकरे की खुशबू से चिड़ियाँ नहीं आतीं। इसी प्रकार ‘1’ की द्योतक संख्या या वस्तु की ओर उसके सहधर्मी आकृष्ट होते हैं। ‘9’ द्योतक संख्या या वस्तु या व्यक्ति की ओर ‘9’ के सहधर्मी आकृष्ट होंगे; अन्य वर्ग के नहीं। जिन वस्तुओं या व्यक्तियों में साधर्म्य होता है उनमें परस्पर आकर्षण भी होता है, यह सामान्य नियम है। एक बच्चा यह नहीं समझता कि भिन्न-भिन्न ऋतुओं और व्यक्तियों से क्या सम्बन्ध है, परन्तु जानने वाले जानते ही हैं कि आम गर्मी में पकते हैं और संतरे जाड़े में।
कम उम्र का बच्चा, चिड़िया, कमेड़ी, कबूतर, सब को ‘चिड़िया’ कहता है; परन्तु चिड़िया चिड़े के साथ ही जाकर रहेगी, कबूतर कबूतरी के साथ ही। इस प्रकार अंक-ज्योतिष से अनभिज्ञ सब अंकों को एक-सा समझते हैं; परन्तु इस विद्या को जानने वाले यह जानते हैं कि ‘1’ मूल अंक वाले व्यक्ति को ‘1’ मूल अंक शुभ जावेगा उसकी विशेष मित्रता भी ‘1’ मूल अंक वाले व्यक्ति से होगी तथा ‘9’ मूल अंक वाले को ‘9’ मूल अंक की संख्या शुभ जावेगी और उसकी विशेष मित्रता भी ‘9’ मूल-अंक वाले व्यक्ति से होगी।
नाम और संख्या-नाम और ‘जन्म-तारीख’ या यह कहिये कि व्यक्ति, वस्तु और संख्या में जो सामंजस्य हो उसी के कारण किसी व्यक्ति के जीवन में या यों कहिए किसी राष्ट्र के जीवन में किसी ‘संख्या’ विशेष का महत्त्व हो जाता है। इसको हम केवल ‘कल्पना या ‘संयोग’ कह कर नहीं टाल सकते। आगे के प्रकरणों में इसके अनेक उदाहरण दिये गये हैं।
मकड़ी जाला बुनती है—बुनते समय कोई क्रम दिखाई नहीं देता, परन्तु बनने पर क्रम नजर आता है। मधु मक्खियाँ छत्ता बनाती हैं; बाहर से कोई क्रम नज़र नहीं आता परन्तु भीतर कितना अधिक और सूक्ष्म क्रम रहता है, यह केवल इस विषय की पुस्तकों को पढ़ने से ही मनुष्य जान सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि जैसे एक बच्चे की दृष्टि में—डाकिए के हाथ की सब चिट्ठियाँ एक सी मालूम होती हैं, परन्तु डाकिया उन्हें मकान के नम्बर नाम के क्रम से बाँट देता है, उसी प्रकार हमारा जीवन—प्रत्येक का भिन्न-भिन्न ‘अंको’ के क्रम से चलता है और जब वह ‘संख्या’—उस ‘संख्या’ का द्योतक वर्ष या दिन आता है, तो हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण घटना होती है। इस अंक-विद्या का पूरी तरह उद्घाटन करना संभव नहीं। भागवत् गीता में 18 अध्याय क्यों हैं ? महाभारत में 18 पर्व क्यों ? 18 पुराणों की संख्या का वैज्ञानिक आधार क्या है ? इस ‘18’ की योग संख्या 1+8=9 है। यह क्यों ? हमारे ऋषि मुनि दिव्य ज्ञान और ऋतम्भरा प्रज्ञा के कारण जो पद-चिह्न छोड़ गये हैं, हम तो केवल उनका अनुकरण मात्र ही कर सकते हैं। श्रीमद्भागवत में 12 स्कन्ध ही क्यों हैं ? दशम स्कन्ध इतना बड़ा हो गया है कि उसे ‘पूर्वार्ध’ और ‘उत्तरार्ध’—इन दो खण्डों में विभाजित करना पड़ा। ऐसा न करके 13 स्कन्ध ही क्यों न कर दिये ? रामायण का नवाह (9 दिन का परायण) तथा भागवत सप्ताह (7 दिन का परायण) क्यों ? गायत्री में 24 अक्षर ही क्यों हैं ?
विवाह के समय ‘सप्तपदी’ ही क्यों होती है। गणेश की चतुर्थी, दुर्गा की अष्टमी, सूर्य की सप्तम, विष्णु की एकादशी तथा रुद्र की प्रदोष-व्यापिनी त्रयोदशी ही क्यों ?—आदि अनेक ऐसे अंक विद्या सम्बन्धी वैज्ञानिक विषय हैं जिनका विवेचन करना, इस छोटी-सी पुस्तक में संभव नहीं। अंक विद्या का रहस्य इतना गंभीर है कि इसमें जितना अधिक नीचे उतरेंगे उतने ही बहुमूल्य रत्न हाथ लगेंगे। यदि आप इसके नियमों का अध्ययन कर, अपने स्वयं की जीवन की घटनाओं से यह नतीजा निकाल सकें कि कौन से दिन, और तारीख को आप को ‘शुभ’ या ‘अशुभ’ जाती है तो केवल इस ज्ञान से आप अपने को बहुत लाभ पहुँचा सकते हैं। हाँ, यह कह देना आवाश्यक है कि जिस प्रकार एक साधारण नियम होता है और उसका अपवाद होता है; उसी प्रकार अंक-विद्या के जो साधारण नियम बताये गये हैं उनके अपवाद भी होते हैं। कभी-कभी उस अंक वाले दिन या वर्ष में, वह ‘अंक’ तो शुभ फल दिखाने की चेष्टा करता है किन्तु किसी अन्य ग्रह के प्रभाव के कारण फल ठीक नहीं बैठता। इससे अनुत्साहित नहीं होना चाहिए। गंभीर अध्ययन तथा धैर्य पूर्वक लम्बे समय तक फल मिलाने से-कौनसा ‘अंक’ शुभ है कौन सा अशुभ—यह अनुभवसिद्ध हो जाता है।
इसी प्रकार संसार की जो विभन्न वस्तुएँ हमें दिखाई देती हैं, उनमें पृथ्वी जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्व है। उनमें तत्त्वों का सम्मिश्रण भिन्न-भिन्न प्रकार से है। किसी में कोई तत्त्व कम है, किसी में कोई अधिक परन्तु यह समस्त जगत् केवल पांच तत्त्वों का प्रपंच है। यह पांच तत्त्व भी केवल आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी। पृथ्वी का गुण ‘गन्ध’, जल का ‘रस’, अग्नि का ‘तेज’ (रूप), वायु का ‘स्पर्श’ और आकाश का गुण ‘शब्द’ है। जैसे संसार के सभी पदार्थों के मूल में आकाश तत्त्व है, उसी प्रकार हम यह कह सकते हैं कि संसार के सभी पदार्थों का गुण ‘शब्द’ है। इसी कारण शब्द को ‘शब्द-ब्रह्म’—अर्थात् परम प्रभु परमेश्वर का प्रतीक माना गया है।
परिणामगतः तो सब शब्द ब्रह्म के रूप ही हैं किन्तु भिन्न-भिन्न शब्दों का गुण और प्रभा भी भिन्न-भिन्न हैं और प्रत्येक शब्दों को अंक या संख्या में परिवर्तित कर उसकी माप की जा सकती है। कोई शब्द (या शब्दावली) 7000 बार आवृत्ति करने पर पूर्णता को प्राप्त होता है किसी का 17000 बार आवृत्ति करने पर परिपाक होता है। ‘संख्या’ और ‘शब्द’ के सम्बन्ध से हमारे ऋषि-महर्षि पूर्व परिचित थे, किसी कारण सूर्य के मंत्र का जप 7000 चन्द्रमा का 11000, तथा मंगल का 10000, बुद्ध का 9000, ब्रहस्पति का 19000, शुक्र का 16000, शनि का 23000, राहु का 18000 और केतु का 17000 जप निर्धारित किया है। किसी देवता के मंत्र में 22 अक्षर1 होते हैं तो किसी के मंत्र में 36। ‘शब्द’ संख्या का घनिष्ट वैज्ञानिक सम्बन्ध है।
इसी प्रकार संख्या और क्रिया का घनिष्ठ संम्बन्ध है। शून्य संख्या (0), निष्क्रिय निराकार, निर्विकार ब्रह्म’ का द्योतक है और ‘1’ पूर्ण ब्रह्म की उस स्थिति का द्योतक है, जब वह अद्वैत रूप से रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘शब्द’ और संख्या (अंक) में सम्बन्ध होने के कारण-समस्त पदार्थों के मूल में जैसे ‘शब्द’ है—
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1. देखिए ‘मंत्र महोदधि’ तृतीय तथा एकादशतरंग; पुरश्यचर्यार्णव तृतीय भाग
वैसे ही अंक भी। शब्द के मूल—आकाश को—‘शून्य’ कहते हैं और अंक के मूल को भी ‘शून्य’ कहते हैं। ‘शून्य’ से ही शब्द और अंक का प्रदुर्भाव होता है। यदि ‘अंक (संख्या) का किसी वस्तु या क्रिया से सम्बन्ध नहीं होता तो हमारे शास्त्र 108 मणियों की माला बनाने का विधान नहीं करते प्रत्येक संख्या का एक महत्त्व है। 25 मणियों की माला पर जप करने से मोक्ष, 30 की माला से धन सिद्धि, 27 की माला से स्वार्थ सिद्धि, 54 से सर्वकामावाप्ति और 108 से सर्व प्रकार की सिद्धियाँ हो सकती हैं। किंतु अभिचार कर्म में 15 मणियों का माला प्रशस्त है।1
108 संख्या का क्या रहस्य है ? सूर्य के राशिभ्रमण में जब एक पूरा चक्र लग जाता है, तो एक वृत्त पूरा करता है। एक वत्त् में 360 अंश होते हैं। इस प्रकार सूर्य की एक प्रदक्षिणा में अंशों की यदि कला बनाई जावे तो 360x60=21600 कला हुईं। सूर्य छः मास उत्तर अयन में रहता है और छः मास दक्षिण अयन में। इस हिसाब से 21600 को दो भागों में विभक्त करने से 10800 संख्या प्राप्त हुई।
अब दूसरे प्रकार से विचार कीजिए। प्रत्येक दिन में सूर्योदय से लेकर दूसरे सूर्यास्त तक ‘काल’ का परिमाण 60 घड़ी माना है। एक घड़ी के 60 पल और 1 पल के 60 विपल। इस प्रकार एक अहोरात्र में 60x60x60=216000 विपल हुए। इसके आधे दिन में 108000 और इतने ही रात्रि में।
जैसे आजकल के नवीन वैज्ञानिक प्रणाली के अनुसार रुपये,
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1. देखिये शारदातिलक का 23वाँ पटल-राघवभट्ट कृत पदार्थवंश व्याख्या।
पैसे, तोल, माप, थर्मामीटर आदि एक ही दशमलव के आधार पर बनाए जा रहे हैं हमारे प्राचीन ऋषियों ने ‘काल’ और ‘संख्या’ का समन्वय किया था। इसी के समीकरण और सामञ्जस्य स्वरूप 108000 की संख्या उपलब्ध हुई और दशमलव की प्रणाली के अनुसार बिन्दु छोड़ देने से 108 की संख्या प्राप्त हुई। हमारे प्राचीन ऋषियों ने ‘शब्द’, काल, संख्या आदि सभी का इस प्रकार सामञ्जस्य कर दिया था कि प्रत्येक नाम का—नाम के अक्षरों का संख्या पिंड, बनाने से उसके सब गुण उस संख्या से प्रकट हो जाते थे। इसी आधार पर जय-पराजय चक्र आगे 9वें प्रकरण में दिये गये हैं। ऋणि और धनी—कौन किसका कर्जदार है अंक-विद्या, मंत्र-विद्या, आदि से सम्बन्ध रखता है, क्योंकि देना-पावना में संख्या में ही होता है।1
नाम को ‘संख्या में परिवर्तित करना—एक बहुत गंभीर विद्या है। आजकल के वैज्ञानिक प्रत्येक भोज्य पदार्थ को ‘‘कैलोरी’’ में परिवर्तित कर यह बताते हैं कि किस भोजन में कितना शक्तिर्धक साधन है। इसी प्रकार किसी नाम को संख्या में परिवर्तित करके यह बताया जा सकता है कि कौन से नाम का व्यक्ति, किससे अधिक शक्तिशाली होगा। प्रत्येक नाम का व्यक्ति उस व्यक्ति का प्रतीक है। विद्वानों के मत से मनुष्य जब सोया हुआ रहता है—तब भी उसके चैतन्य की एक कला जगी हुई रहती है। और उसे सावधान या सतर्क किए रहती है। यदि 20 मनुष्य एक ही स्थान पर सोये हुए हों तो प्रायः जिसका नाम लेकर आवाज दी
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1. देखिए ‘‘तंत्रसार’’ तथा ‘चंडी’’ अंक 4-वर्ष 12-पृष्ठ 114
जाती है वही जग जाता है। ‘नरपति जय-चर्चा1 नामक ग्रंथ में लिखा है कि मनुष्य के उसी नाम का विचार करना चाहिए जिस से उसे आवाज़ दी जावे तो वह सोता हुआ जग जावे। ‘नाम’ और नाम की प्रतीक ‘संख्या’ अनादिकाल से, फलादेश में उपयुक्त होते रहे हैं। जिस पाकर रेडियो की सूई जिस ‘संख्या’ पर स्थिर कर दीजिए उसी ‘संख्या’ पर प्रवाहित शब्द रोडियो पर सुनाई देने लगते हैं—उसी प्रकार ‘संख्या’ विशेष और उस ‘संख्या’ के प्रतीक ‘वस्तु’ या व्यक्ति में आकर्षण होता है।
अमेरिका में नवीन अनुसंधान द्वारा यह सिद्ध कर दिया जा चुका है कि बहुत-से प्रकार के कीड़े, अपने सजातीय कीड़ों को सन्देश या संवाद भेज सकते हैं—इसका कारण यह है कि जिस प्रकार एक संख्या पर सूई स्थिर करने से रेडियों में आवाज़ आने लगती है उसी प्रकार यह कीड़े भी जो संवाद प्रेषित करते हैं उनको उनके सजातीय कीड़े ग्रहण कर सकते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के कीड़ों को एक बड़े बाग़ के अलग-अलग कोनों पर छोड़ा गया है—वह एक ही केन्द्र स्थल पर जाकर मिल जाते हैं। एक खास प्रकार की मक्खी के झुँड को दो स्थानों पर-परस्पर एक दूसरे से एक मील दूर-छोड़कर देखा गया कि वे एक ही स्थान पर आकर मिल जाती हैं।2
या जुगनू को लीजिए। मादा जुगनू के पर नहीं होते, नर के होते हैं। दोनों के शरीर से प्रकाश निकलता है किन्तु मादा जुगनू के शरीर से अधिक तेजी से रोशनी निकलती है और इस चमक से
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1. नरपति चर्चा अध्याय 2 पृ. 15
जन्म-पत्रिका विधान पृ. 225
2. ‘‘Number Please’’ by Dr. United Cross पृ. 14, 15
आकृष्ट होकर नर जुगनू उसके पास आता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में परस्पर क्यों आकर्षण या घृणा प्रादुर्भाव होता है-यह स्थूल दृष्टि से नहीं जाना जा सकता। किन्तु सब के मूल में वैज्ञानिक रहस्य है
जंगल में दाना डाल दीजिए। चिड़िया और कबूतर आ जावेंगे। चीनी फैला दीजिए; चीटियाँ इकट्ठी हो जावेंगी। मरा हुआ जानवर डाल दीजिए, गृद्ध और चील आकाश को आच्छादित कर लेंगी। और कहीं रात्रि में बकरा, या पाड़ा बाँध दीजिए तो शेर शिकार के लिए आजावेगा, चीनी पर शेर नहीं आता। बँधे हुए बकरे की खुशबू से चिड़ियाँ नहीं आतीं। इसी प्रकार ‘1’ की द्योतक संख्या या वस्तु की ओर उसके सहधर्मी आकृष्ट होते हैं। ‘9’ द्योतक संख्या या वस्तु या व्यक्ति की ओर ‘9’ के सहधर्मी आकृष्ट होंगे; अन्य वर्ग के नहीं। जिन वस्तुओं या व्यक्तियों में साधर्म्य होता है उनमें परस्पर आकर्षण भी होता है, यह सामान्य नियम है। एक बच्चा यह नहीं समझता कि भिन्न-भिन्न ऋतुओं और व्यक्तियों से क्या सम्बन्ध है, परन्तु जानने वाले जानते ही हैं कि आम गर्मी में पकते हैं और संतरे जाड़े में।
कम उम्र का बच्चा, चिड़िया, कमेड़ी, कबूतर, सब को ‘चिड़िया’ कहता है; परन्तु चिड़िया चिड़े के साथ ही जाकर रहेगी, कबूतर कबूतरी के साथ ही। इस प्रकार अंक-ज्योतिष से अनभिज्ञ सब अंकों को एक-सा समझते हैं; परन्तु इस विद्या को जानने वाले यह जानते हैं कि ‘1’ मूल अंक वाले व्यक्ति को ‘1’ मूल अंक शुभ जावेगा उसकी विशेष मित्रता भी ‘1’ मूल अंक वाले व्यक्ति से होगी तथा ‘9’ मूल अंक वाले को ‘9’ मूल अंक की संख्या शुभ जावेगी और उसकी विशेष मित्रता भी ‘9’ मूल-अंक वाले व्यक्ति से होगी।
नाम और संख्या-नाम और ‘जन्म-तारीख’ या यह कहिये कि व्यक्ति, वस्तु और संख्या में जो सामंजस्य हो उसी के कारण किसी व्यक्ति के जीवन में या यों कहिए किसी राष्ट्र के जीवन में किसी ‘संख्या’ विशेष का महत्त्व हो जाता है। इसको हम केवल ‘कल्पना या ‘संयोग’ कह कर नहीं टाल सकते। आगे के प्रकरणों में इसके अनेक उदाहरण दिये गये हैं।
मकड़ी जाला बुनती है—बुनते समय कोई क्रम दिखाई नहीं देता, परन्तु बनने पर क्रम नजर आता है। मधु मक्खियाँ छत्ता बनाती हैं; बाहर से कोई क्रम नज़र नहीं आता परन्तु भीतर कितना अधिक और सूक्ष्म क्रम रहता है, यह केवल इस विषय की पुस्तकों को पढ़ने से ही मनुष्य जान सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि जैसे एक बच्चे की दृष्टि में—डाकिए के हाथ की सब चिट्ठियाँ एक सी मालूम होती हैं, परन्तु डाकिया उन्हें मकान के नम्बर नाम के क्रम से बाँट देता है, उसी प्रकार हमारा जीवन—प्रत्येक का भिन्न-भिन्न ‘अंको’ के क्रम से चलता है और जब वह ‘संख्या’—उस ‘संख्या’ का द्योतक वर्ष या दिन आता है, तो हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण घटना होती है। इस अंक-विद्या का पूरी तरह उद्घाटन करना संभव नहीं। भागवत् गीता में 18 अध्याय क्यों हैं ? महाभारत में 18 पर्व क्यों ? 18 पुराणों की संख्या का वैज्ञानिक आधार क्या है ? इस ‘18’ की योग संख्या 1+8=9 है। यह क्यों ? हमारे ऋषि मुनि दिव्य ज्ञान और ऋतम्भरा प्रज्ञा के कारण जो पद-चिह्न छोड़ गये हैं, हम तो केवल उनका अनुकरण मात्र ही कर सकते हैं। श्रीमद्भागवत में 12 स्कन्ध ही क्यों हैं ? दशम स्कन्ध इतना बड़ा हो गया है कि उसे ‘पूर्वार्ध’ और ‘उत्तरार्ध’—इन दो खण्डों में विभाजित करना पड़ा। ऐसा न करके 13 स्कन्ध ही क्यों न कर दिये ? रामायण का नवाह (9 दिन का परायण) तथा भागवत सप्ताह (7 दिन का परायण) क्यों ? गायत्री में 24 अक्षर ही क्यों हैं ?
विवाह के समय ‘सप्तपदी’ ही क्यों होती है। गणेश की चतुर्थी, दुर्गा की अष्टमी, सूर्य की सप्तम, विष्णु की एकादशी तथा रुद्र की प्रदोष-व्यापिनी त्रयोदशी ही क्यों ?—आदि अनेक ऐसे अंक विद्या सम्बन्धी वैज्ञानिक विषय हैं जिनका विवेचन करना, इस छोटी-सी पुस्तक में संभव नहीं। अंक विद्या का रहस्य इतना गंभीर है कि इसमें जितना अधिक नीचे उतरेंगे उतने ही बहुमूल्य रत्न हाथ लगेंगे। यदि आप इसके नियमों का अध्ययन कर, अपने स्वयं की जीवन की घटनाओं से यह नतीजा निकाल सकें कि कौन से दिन, और तारीख को आप को ‘शुभ’ या ‘अशुभ’ जाती है तो केवल इस ज्ञान से आप अपने को बहुत लाभ पहुँचा सकते हैं। हाँ, यह कह देना आवाश्यक है कि जिस प्रकार एक साधारण नियम होता है और उसका अपवाद होता है; उसी प्रकार अंक-विद्या के जो साधारण नियम बताये गये हैं उनके अपवाद भी होते हैं। कभी-कभी उस अंक वाले दिन या वर्ष में, वह ‘अंक’ तो शुभ फल दिखाने की चेष्टा करता है किन्तु किसी अन्य ग्रह के प्रभाव के कारण फल ठीक नहीं बैठता। इससे अनुत्साहित नहीं होना चाहिए। गंभीर अध्ययन तथा धैर्य पूर्वक लम्बे समय तक फल मिलाने से-कौनसा ‘अंक’ शुभ है कौन सा अशुभ—यह अनुभवसिद्ध हो जाता है।
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